Thursday 21 May 2009

निर्जीव परम्परा

निर्जीव परम्परा

उस दिन
एक पूरा का पूरा
आसमान,
मेरे सिर पर
टूट प़डा था।
आसमान जो
चाँद सितारों से जड़ा था।
तब मैंने जाना,
कि उस आकाश में
चाँद सितारे ही नहीं,
कील कांटे भी थे।
और उस मलबे के नीचे
मैं असहाय बेबस,
तुम्हें पुकारती रही।
किन्तु तुम अपने
अस्तित्व विहीन होने का
नाटक रचते रहे।
तब जाना,
अपने आप ही उठना होगा।
मन को जैसे तैसे
समझाना होगा।
तुम्हारी निर्जीव
परम्परा को
नकारना होगा।

उषा वर्मा
यॉर्क

Wednesday 20 May 2009

तुम साथ थे हमारे

तुम साथ थे हमारे

माना कि ग़म बहुत थे,
रस्ते बड़े कठिन थे,
लेकिन यही क्या कम था
तुम साथ थे हमारे।
झंझा उठा भयानक,
तूफ़ां से घिर गये हम
छूटा कहां किनारा,
कुछ भी न देख पाये,
बिजली चमक के सहसा ,
दिखला गई नये किनारे।
तुम साथ थे हमारे ।
मांगा कहां था हमने,
सूरज की रोशनी को.
मांगा कहां था हमने ,
चाँदी सी चाँदनी को,
अम्बर की चाह क्या है,
दे दो मुझे तुम मेरे ,
सारे क्षितिज अधूरे।
तुम साथ थे हमारे।
समतल धरा जो होगी
हम साथ ही चलेंगे
हाथों में हाथ लेकर,
कुछ गुनगुना भी लेंगे,
ठोकर लगे जो साथी,
झुककर मुझे उठाना,
देना नये सहारे।
तुम साथ थे हमारे।

Tuesday 19 May 2009

क्या तुम्हें मालूम है?

क्या तुम्हें मालूम है?
तुम्हारे आते ही,
बेला महक उठा
चारों तरफ़ से मेघ घिरे आकाश में ,
एक ध्रुव तारा चमक उठा ।
हिम खंड पिघल कर, विस्तार पा गया।
खेत खलिहानों में समा गया।
इच्छाओं आकांक्षाओं के
तमाम पौधे लहलहा उठे।
अग्निबाहु फैल कर तपिश के,
तमाम राज़ खोल गया।
और फिर तुम्हारे जाते ही,
गुलाब की अरुणिमा,
मेरी आंखों मे बिछ गई,
उस दिन जो संपूर्ण लगा था,
वह रिक्त कलश सा ढरक गया।
क्यों ?
तुम्हें मालूम है क्या?

Monday 18 May 2009

कली और फूल

कली और फूल

कली जब तक
कली रहती है
वह नारी बनी रहती है।
लेकिन फूल खिलते ही
पुरुष बन जाता है ।
होते यदि
कामता प्रसाद गुरु,
ज़िन्दा ,तो उनसे पूछती ,
कली और फूल का.
यह व्याकरण कैसा ?
Shav sankat
शव संकट

पता चला है विश्वस्त सूत्र से
कि मची हुई है हलचल
कुछ सरकारी हल्कों में, लंदन के
दो गज़ ज़मीं बची नहीं है,
कूच ए यार में ।
एक विशेषज्ञ के अनुसार।
केवल विशेष लोग ही
फैला कर पैर कब्र में
कर सकते हैं विश्राम।
किन्तु
आयोजन विशेष है।
जनता आम के लिए
एक शव की जगह में
चार शव खड़े खड़े
कर सकते हैं आराम।
यह अच्छा ही है
खड़े रहकर साथ साथ
वे कर सकते हैं संकेत
दे सकते हैं एक दूसरे को
आशा के संवाद।
बतिया सकते हैं,
धकिया सकते हैं,
मुस्का सकते हैं।
मिल जाये मौका तो
हाथ थाम कर
एक दूसरे को
दे सकते हैं अपनापन।
संकट में यही बहुत है।

Wednesday 13 May 2009

एकऐतिहासिक दिन

Arch Bishop of York.
एक ऐतिहासिक दिन
“आदेश जिधर देते हैं, इतिहास उधर झुक जाता है”
समय बदलता है, समय के प्रतिमान बदलते हैं। इंग्लैंड के इतिहास में अनोखा दिन जब एक अफ़्रीकन बिशप जॉन टकर मुगाबी सेन्टामू को धर्म-मुकुट पहना कर ऑर्च-बिशप ऑफ़ यॉर्क की गद्दी पर बैठाया गया। इतिहास-वेत्ताओं ने उस दिन अवश्य ही समय की इस करवट को महसूस किया होगा। संसार के बहुत बड़े हिस्से में एक नये सूरज का उदय होना माना जायेगा किन्तु कुछ लोगों के लिये यह परिवर्तन बहुत कष्टप्रद भी होगा।
बिकने और ख़रीदी जा सकने वाली जाति का यह बच्चा प्रतिदिन 9मील पैदल चल कर स्कूल जाता था। इसके पास एक सायकिल तक भी नहीं थी।लगन और कठिन परिश्रम से हाईकोर्ट में ऐडवोकेट बनने के बाद उसने अन्याय से टक्कर लेना शुरू किया, जिसके फलस्वरूप उन्हें अपनी पत्नी के साथ अपनी जन्म-भूमि युगांडा से भागना पड़ा। तानाशाह इदी अमीन संभवतः उनके जीवन से खेलते। अतः वह इग्लैंड में शरणार्थी हो कर आ गये। जिस इंग्लैंड ने उन्हें शरण दी उस इंग्लैंड का इतिहास उनके आदेश से बदलेगा यह कौन जानता था।
डा.जॉन सेंटामू 30 नवम्बर सन दो हज़ार पांच में यॉर्क के आर्चबिशप पूरे ताम-झाम और रस्मों रिवाज़ के साथ योरोप के सबसे प्रसिद्ध यॉर्क मिन्सटर नामक चर्च में केथीड्रा
(आर्च-बिशप की गद्दी) पर आरूढ़ हुए।जॉन सेंटामू सतान्नवें आर्च-बिशप हैं। बारहसौ साल तक जिस गद्दी पर श्वेत गुरुओं को स्थान मिलता रहा,वहां आज अफ़्रीकी मूल के धर्म गुरु डा. जॉन सेंटामू को स्थान दिया गया है।इन पंक्तियों की लेखिका भी वहाँ पर( फ़ेथ ऐडवाइज़र के रूप में) उपस्थित थीं। तीन हज़ार लोग साक्षी थे उस अदभुत दिन के।
डा.जॉन सेंटामू ऊज़ नदी पर स्थित अपने नये आवास बिशप थॉर्प महल से निकल कर नाव से मेरी-गेट घाट पर पहुंचे, और फिर पैदल म्यूज़ियम गार्डन और म्यूज़ियम स्ट्रीट से होते हुए मिन्सटर तक की तीर्थ-यात्रा की। स़ड़क के दोनो तरफ़ लोगों की भीड़ खड़ी थी।हड्डियों को भी जमादेनेवाली बर्फ़ीली हवा और ठंड में भी ऑर्च बिशप के स्वागत में लोग खड़े थे। चर्च के भीतर बैठे लोग बेसबरी से इंतज़ार कर रहे थे। इसी समय चर्च के मुख्य द्वार पर जॉन सेंटामू ने परम्परा के अनुसार गदा (क्रोज़ियर) से तीन बार प्रहार किया। और चर्च का विशाल मुख्य द्वार खोल दिया गया। डीन ऑफ़ यॉर्क ने ऑर्च बिशप के आने की घोषणा की। आत्मविश्वास से भरे एक नरम मुसकराहट बिखेरते हुए जॉन सेंटामू बच्चों के क्वायर सुनते आगे बढ़े।पारंपरिक रूप से की जाने वाली इस प्रथा में भी ऑर्च बिशप तेज़ी से मिन्सटर के मध्य में सजाए सेंट कथबर्ट के ऑल्टर पर पूजा करने पहुंच गए। साथ ही चौदह बच्चे जो ऑर्चबिशप के डाइसीज़ का प्रतिनिधित्व कर रहे थे उनके चारों तरफ़ बड़ी बड़ी मोमबत्तियों के साथ खड़े हो गए।इस अवसर पर एंगलिकन चर्च के दूसरे धर्म-गुरु ऑर्चबिशप ऑफ़ कैन्टरबरी रोएन विलियम्स भी उपस्थित थे। य़द्यपि इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था।उन्होंने सेंटामू के सर पर पवित्र तेल(प्रतीक है हीलिंग का) से क्रॉस बनाया।और बाद में उनके परिवार को भी पवित्र तेल लगाया।
चारों तरफ़ लोगों की आंखें इस भव्य दृष्य को अपने में भर लेना चाहती थीं।दोनो ऑर्च-बिशप ने एक दूसरे को गले लगाया।विनीत, संयत दो विशाल व्यक्तित्व कर्तव्य, धर्म, कर्म की परिभाषा बन गए थे। अब डा. सेंटामू को केथीड्रल के डीन कीथ जोन्स ने केथीड्रा पर वैठाया और उनके दोनो कंधों को थपथपाते हुए आश्वासन दिया।अब जॉन सेंटामू ऑर्च-बिशप ऑफ यार्क की पदवी से विभूषित केथीड्रा पर आसीन हो गए थे।
किंतु इस विशेष अवसर पर राज परिवार का कोई सदस्य उपस्थित नहीं था,इसपर सभी का ध्यान गया।ऐसा बताया गया कि रानी एलिज़ाबेथ के परिवार के लोग व्यस्त थे और उनके प्रतिनिध जिन्हें रानी ने भेजा भी वह यात्रा में अड़चने आने के कारण पहुंच नहीं पाए।
ऑर्चबिशप सन्टामू के अपने अध्यक्षीय भाषण की केन्द्रीय भावना थी कि जीसस का शिष्य होने का क्या अर्थ है।जन सभा को याद दिलाते हुए उन्होंने कहा कि प्रसिद्ध आर्चबिशप माइकेल रैमज़ी ने 1960 में केम्ब्रिज, डबलिन, और ऑक्सफ़र्ड के यूनिवर्सिटी मिशनस् में कहा था “मैं उस दिन के बारे में सोच रहा हूं जब एक काला आदमी आर्च बिशप ऑफ़ यॉर्क होगा। जिसका मिशन होगा आने वाली पीढ़ी को चर्च के गौरव तथा अपकीर्ति को बताना” ऑर्च-बिशप ऑफ़ यॉर्क ने ज़ोर दे कर स्वाभाविक हंसी में कहा “और मैं आ गया हूं”ऑर्चबिशप ने जो सबसे अलग और महत्वपूर्ण बात कही वह थी की क्रिश्चियनस् को हिन्दू मुसलिम सिख बौद्ध यहूदियों और नास्तिक सब से मिलना जुलना चाहिए पर उनका धर्म बदलने के लिए नहीं। उन्हें दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहिए। उन्हें सुनना, समझना चाहिये। ऑर्च-बिशप खुले हृदय से दोनों हाथों को फैला कर सबका स्वागत करने को तैय्यार हैं।
ऑर्च-बिशप के इस सर्व धर्म समभाव के प्रभावशाली आह्वान ने हर एक के हृदय को जीत लिया। उन्हें मेरा नमन।और तब आर्च-बिशप सेंटामू ने तीन बच्चों के पैर धोये। कहते हैं,
एकबार क्राइस्ट के पास कुछ शिष्य आये जिनके पैर धूल तथा मिट्टी से भरे थे और वे बेहद थके थे तब क्राइस्ट ने उनके पैर धोये थे तब से यह प्रथा चली आ रही है।
इतिहास के इस गौरवपूर्ण क्षण में धर्म गुरु की पीठिका की शोभा मिन्सटर के भव्य परिसर में हज़ार-हज़ार ज्योति से आलोकित हो रही थी।आर्चबिशप ने अपनी प्रार्थना को अपने आशीर्वाद को जो सुन नहीं सकते उन तक पहुंचाने के लिये साइन लैंग्वेज का प्रयोग करके अपने व्यक्तित्व एवं विचारों की दृढ़ता को प्रगट किया। उनके परिधान में अफ़्रीका के गाढे रंगों की सुगंध बिखरी थी।युगांडा से आए नृत्य दल ने शांति,प्यार और मानवता का संदेश देते हुए अफ़रीकन नृत्य और स्वाहिली संगीत से पूरे केथीड्रल को आनन्द से सराबोर कर दिया। आर्चबिशप सन्टामू स्वयं एक कुशल ड्रमवादक हैं। इस अवसर पर ड्रम बजा कर उन्होंने एकता का संदेश दिया।
मैं घर आ गई हूं । मेरे मन के किसी कोने में एक सवाल उठता है, क्या किसी दिन एक अछूत या दलित भी शंकराचार्य हो सकेगा। संभवतः वक्त की पुकार को बहुत देर तक नहीं टाला जा सकता। आशंका है, दुविधा है, पर एक दृढ़ विश्वास है। वह दिन अवश्य आयेगा।
आभार उषा वर्मा
डीन जेरमी फ़्लेचर और ऐन विल्किन्स

33ईस्टफ़ील्ड क्रेसेन्ट
बैजर हिल

Monday 11 May 2009

बुद्ध से एक प्रश्न
भंते,
आपने कहा था
मुक्ति का एक रास्ता है।
इच्छाओं के दमन से,
मिलती है मुक्ति
आवागमन से।
मैं तो एक नारी हूं।
इच्छाओं का दमन ही
सिखाया था,
माता पिता ने,
पति पुत्र ने।
क्या मुझे मुक्ति मिलेगी?
आपके उत्तर की
प्रतीक्षा रहेगी।

Sunday 10 May 2009

शुभ-कामनाएं

शुभ कामनाएं

मधुमय उपवन में
पंछी युगल बन तुम रहो।
स्नेह की झिलमिल अरुणिमा
पथ प्रशस्त करती रहो।
चित्र बनते जा रहे हैं
तूलिका थकती नहीं।
चांदनी को एक टुकड़ा
बन सदा झरती रहो।
राह कितनी हो कठिन
धूप कितनी तेज़ हो।
स्निग्ध मानव मन तुम्हारा
बस साथ तुम चलती रहो।