ग्यारह सितंबर के बाद
प्रकृति ने विनाश किया था
तब तुम भी रोये थे।
बिजली चमक कर
गिर कर
पेड़ ही नहीं
हमारे आशियाने को
भी जला गई थी।
सैलाब ने
पेड़ पौधे जानवर ही नहीं
आदमी को भी
बहा दिया था
तब हम साथ-साथ रोये थे
हमने एक दूसरे को
पुकारा था
सहारा दिया था
जो बरबाद हुआ
उसमें भी नया सृजन
संभावित था।
बाढ़ ने उपजाऊ जमीन छोड़ दी थी
बिजली ने जो जलाया
वह धुल कर निखर आया
किन्तु तुम्हारी असहिष्णुता ने
तुम्हारे नपुंसक पौरुष ने
जो बरबाद किया
वह सब बंजर हो गया।
दुबारा
बंजर में उग पाईं थी
केवल नफ़रत की दीवारें
तब हम अकेले-अकेले रोये थे।
उषा वर्मा
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3 comments:
एक अन्तराल के बाद के बाद इस रचना के साथ आपको देख अच्छा लगा. नियमित पोस्ट करें अपने प्रशंसकों की खातिर..
जो बरबाद हुआ
उसमें भी नया सृजन
संभावित था।
आशा का संचार लिए पंक्तियाँ पसन्द आयीं।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
bahut hi sundar post lagi aapki. badhai.
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