Tuesday, 19 May 2009

क्या तुम्हें मालूम है?

क्या तुम्हें मालूम है?
तुम्हारे आते ही,
बेला महक उठा
चारों तरफ़ से मेघ घिरे आकाश में ,
एक ध्रुव तारा चमक उठा ।
हिम खंड पिघल कर, विस्तार पा गया।
खेत खलिहानों में समा गया।
इच्छाओं आकांक्षाओं के
तमाम पौधे लहलहा उठे।
अग्निबाहु फैल कर तपिश के,
तमाम राज़ खोल गया।
और फिर तुम्हारे जाते ही,
गुलाब की अरुणिमा,
मेरी आंखों मे बिछ गई,
उस दिन जो संपूर्ण लगा था,
वह रिक्त कलश सा ढरक गया।
क्यों ?
तुम्हें मालूम है क्या?

8 comments:

रंजना said...

Waah !! Komal bhavon ki sundar abhivyakti..

निर्मला कपिला said...

bahut sunder abhivyakti hai jo dharak jata hai vo kaun dekh pata hai

kulwant happy said...

बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है..

रंजीत/ Ranjit said...

sundar aur prabhvee rachna

महेन्द्र मिश्र said...

बहुत ही सुन्दर रचना . पढ़कर मन प्रसन्न हो गया . आभार.

PREETI BARTHWAL said...

बेहद खूबसूरत रचना है।

विजय तिवारी " किसलय " said...

उषा जी
अभिवंदन
"क्या तुम्हें मालुम है " रचना पढ़ी
इतनी संयत और आदर्श शब्दावलि में लिखी गयी श्रांगारिक रचना वर्तमान में विरली ही देखने मिलती हैं
हमारी हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकारें.
- विजय

Udan Tashtari said...

बहुत जीवंत अहसास!! सुन्दर रचना.