Thursday, 21 May 2009

निर्जीव परम्परा

निर्जीव परम्परा

उस दिन
एक पूरा का पूरा
आसमान,
मेरे सिर पर
टूट प़डा था।
आसमान जो
चाँद सितारों से जड़ा था।
तब मैंने जाना,
कि उस आकाश में
चाँद सितारे ही नहीं,
कील कांटे भी थे।
और उस मलबे के नीचे
मैं असहाय बेबस,
तुम्हें पुकारती रही।
किन्तु तुम अपने
अस्तित्व विहीन होने का
नाटक रचते रहे।
तब जाना,
अपने आप ही उठना होगा।
मन को जैसे तैसे
समझाना होगा।
तुम्हारी निर्जीव
परम्परा को
नकारना होगा।

उषा वर्मा
यॉर्क

4 comments:

Udan Tashtari said...

तुम्हारी निर्जीव
परम्परा को
नकारना होगा।

--

सही कहा!!

--इसे देखें:


बाग की उस तख्ती पर लिखा था,
’यहाँ फूल तोड़ना मना है’
ये तो कहीं न लिखा था कि
’कांटे भी न तोड़िये’

और फिर

मेरे जहन में तो सिर्फ
कांटे ही कांटे हैं..

फिर भी न जाने क्यूँ लोग....

’मुझ पर ऊँगलियाँ उठाते हैं’


--



बेहतरीन रचना, बधाई.

neera said...

कि उस आकाश में
चाँद सितारे ही नहीं,
कील कांटे भी थे।

Sach!

पारुल "पुखराज" said...

तब जाना,
अपने आप ही उठना होगा।
मन को जैसे तैसे
समझाना होगा।...
कि उस आकाश में
चाँद सितारे ही नहीं,
कील कांटे भी थे।....

अच्छी रचना !

Udan Tashtari said...

बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं जा रहा है.