शब्द ,तुम सूर्य के वंशधर
नचिकेता की अग्नि तुम्हीं,
तुम्हीं मेरी आकांक्षा के आकाश।
शब्द तुम कस्तूरी का सुवास
पागस करती रही सदा
जीवन भर जंगल जंगल
रही भटकती मैं अभिशापित
सूर्य तुम ज्योति-पुंज के हस्ताक्षर
मेरे जीवन का उल्लास
ठगा सा खोया
सोया था चुपचाप
जान न पाई
वह सब क्या था। बेचैन बना जाती,
शब्द तुम जीवन के सहचर।
तुमको पाने की आकांक्षा में
चलूं निरंतर,करूं वंदना तेरी सस्वर।
अजर अमर तुम,
बहुआयामी अर्थ के पक्षधर
शब्द तुम लीलाधर।
Saturday, 27 February 2010
बेटी की बिदाई
1
बेटी, तुझे घर से बिदा किया था
लेकिन एक सशक्त हाथों में सौंप कर।
उस समय तूने पूछा था,
वहां कौन है मेरा?
न बन्धु न बान्धवी
न तुम न पिता,न भाई न बहन।
मैने कहा था सब कुछ वहीं है,
समझाया था, आंसू पोछे थे तेरे।
तेरी गोद भर कर,
नन्हां सा टीका लगा कर,
कहा था, अब वही है घर तेरा।
पर बेटी,इतनी दूर
विदेश!
किस हृदय से आज दूं तुझे विदा।
विदेश में क्या है?
कौन है तूने तो मुझसे
पूछा नहीं दुबारा।
आज मैं पूछती हूं
बेटी, सवाल तेरे तुझसे ही करती हूं।
वहां कोन है तेरा?
न बन्धु न बान्धवी न मैं न तेरा पिता,
न बहन न भाई।
आज मेरी रानी बेटी, तू
मुझको समझा दे,कुछ कह दे
कैसे दूं तुझे बनवास।
जानती हूं जवाब नहीं तेरे पास।
तेरी गोदी में डालती हूं शुभ कामनाएं।
जहां भी रहे तू फले फूले,
पराए पेड़ में ही सही, तू झूला झूले।
मेरी बेटी देश की माटी
माथे पर लगा ले।
.................................
2 मां की पुण्य-स्मृति पर
मां बन कर मैने
मन तेरा पहचान लिया
क्या होती है मां की ममता
क्षण भर में यह जान लिया।
मां तुमने क्या नहीं दिया
प्यार दिया, ममता का संसार दिया
हम सबके सुख पर तुमने,
अपना सब कुछ वार दिया
मन होता है, दुख की इस बेला,
में पास तुम्हारे आऊँ,पर
सात समुद्रों का यह दूरी
तुम्हीं कहो, कैसे तय कर पाऊं।
होते पंख अगर मुझको
चिड़िया सी उड़ कर आ जाती।
दुबक तुम्हारी गोदी में
जीवन का सब सुख पा जाती।
मैं तुमको क्या दे दूं मां,
अक्षर का यह बोध तुम्हीं से पाया,
हाथ पकड़ कर लिखना भी
तो तुमने ही सिखलाया।
अर्पण है शब्दों की यह माला,
स्वीकार इसे कर लेना
हाथ उठा कर एक बार
फिर सुखी रहो कह देना
बेटी, तुझे घर से बिदा किया था
लेकिन एक सशक्त हाथों में सौंप कर।
उस समय तूने पूछा था,
वहां कौन है मेरा?
न बन्धु न बान्धवी
न तुम न पिता,न भाई न बहन।
मैने कहा था सब कुछ वहीं है,
समझाया था, आंसू पोछे थे तेरे।
तेरी गोद भर कर,
नन्हां सा टीका लगा कर,
कहा था, अब वही है घर तेरा।
पर बेटी,इतनी दूर
विदेश!
किस हृदय से आज दूं तुझे विदा।
विदेश में क्या है?
कौन है तूने तो मुझसे
पूछा नहीं दुबारा।
आज मैं पूछती हूं
बेटी, सवाल तेरे तुझसे ही करती हूं।
वहां कोन है तेरा?
न बन्धु न बान्धवी न मैं न तेरा पिता,
न बहन न भाई।
आज मेरी रानी बेटी, तू
मुझको समझा दे,कुछ कह दे
कैसे दूं तुझे बनवास।
जानती हूं जवाब नहीं तेरे पास।
तेरी गोदी में डालती हूं शुभ कामनाएं।
जहां भी रहे तू फले फूले,
पराए पेड़ में ही सही, तू झूला झूले।
मेरी बेटी देश की माटी
माथे पर लगा ले।
.................................
2 मां की पुण्य-स्मृति पर
मां बन कर मैने
मन तेरा पहचान लिया
क्या होती है मां की ममता
क्षण भर में यह जान लिया।
मां तुमने क्या नहीं दिया
प्यार दिया, ममता का संसार दिया
हम सबके सुख पर तुमने,
अपना सब कुछ वार दिया
मन होता है, दुख की इस बेला,
में पास तुम्हारे आऊँ,पर
सात समुद्रों का यह दूरी
तुम्हीं कहो, कैसे तय कर पाऊं।
होते पंख अगर मुझको
चिड़िया सी उड़ कर आ जाती।
दुबक तुम्हारी गोदी में
जीवन का सब सुख पा जाती।
मैं तुमको क्या दे दूं मां,
अक्षर का यह बोध तुम्हीं से पाया,
हाथ पकड़ कर लिखना भी
तो तुमने ही सिखलाया।
अर्पण है शब्दों की यह माला,
स्वीकार इसे कर लेना
हाथ उठा कर एक बार
फिर सुखी रहो कह देना
Saturday, 6 February 2010
बादल का जन्मदिन
आवश्यक है कि मैं लिखूं.
तुम्हारे जन्म दिन की तारीख़,
मालूम ही न पड़ा
कि यह बदली कब उमड़ी,
और कब शब्द झंझावात बन उसे ले उड़े।
कहां बरस कर वुलवुले फट पड़े।
हरी हो गई सूखी दरार पड़ी धरती
उसने भी नहीं बताया पता
उन बादलों का,
तुम्हारा जन्म दिन उसे भी याद नहीं था।
तुम्हारे जन्म दिन की तारीख़,
मालूम ही न पड़ा
कि यह बदली कब उमड़ी,
और कब शब्द झंझावात बन उसे ले उड़े।
कहां बरस कर वुलवुले फट पड़े।
हरी हो गई सूखी दरार पड़ी धरती
उसने भी नहीं बताया पता
उन बादलों का,
तुम्हारा जन्म दिन उसे भी याद नहीं था।
स्मृति
हवा की तरह लिपट जाती है,
छाया की तरह पीछे पीछे चलती है।
पुकारने पर मेरी ही आवाज़,
देर तक खंडहरों में गूंजती है
आज उसे क्या हुआ है,बार बार मुझे छल जाती है।
प्रवंचना की ऐसी सुलगती आग ।
ठगिनी कितनी बार,कितने जोगी का ऱूप लेकर
पर्वत की ऊंचाइयों को लांघ कर,
तुम यहां आती हो।
तुम्हारे शतशत चिन्ह हैं मेरे अतीत के मज़ार पर।
कोई बिछुड़ा बादल बरस जाए तो
शीत की एक लहर मन को कंपा जाती है
ऐसे ही तुम लुकती छिपती
जीवन में शोर मचा देती हो।
मन की इस गहरी खामोशी में ,
तुम्हारे आने का आभास मन में संजाल बिछा देता है।
लैम्प की इस धुंधली रोशनी में,
चमकते हैं तुम्हारे सितारे।
मन की आंखों में तुम्हारी इस अदा को बसा लेती हूं
तुम्हारे बिना एक वीरान सी वेचैनी है,
आओ तुम टूटे चश्में की तरह
कान पर लटक जाओ।
कली और फूल
कली जब तक
कली रहती है
वह नारी बनी रहती है।
लेकिन फूल खिलते ही
पुरुष बन जाता है ।
होते यदि
कामता प्रसाद गुरु,
ज़िन्दा ,तो उनसे पूछती ,
कली और फूल का.
यह व्याकरण कैसा ?
----यह टेस्ट पोस्ट है-----
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