हवा की तरह लिपट जाती है,
छाया की तरह पीछे पीछे चलती है।
पुकारने पर मेरी ही आवाज़,
देर तक खंडहरों में गूंजती है
आज उसे क्या हुआ है,बार बार मुझे छल जाती है।
प्रवंचना की ऐसी सुलगती आग ।
ठगिनी कितनी बार,कितने जोगी का ऱूप लेकर
पर्वत की ऊंचाइयों को लांघ कर,
तुम यहां आती हो।
तुम्हारे शतशत चिन्ह हैं मेरे अतीत के मज़ार पर।
कोई बिछुड़ा बादल बरस जाए तो
शीत की एक लहर मन को कंपा जाती है
ऐसे ही तुम लुकती छिपती
जीवन में शोर मचा देती हो।
मन की इस गहरी खामोशी में ,
तुम्हारे आने का आभास मन में संजाल बिछा देता है।
लैम्प की इस धुंधली रोशनी में,
चमकते हैं तुम्हारे सितारे।
मन की आंखों में तुम्हारी इस अदा को बसा लेती हूं
तुम्हारे बिना एक वीरान सी वेचैनी है,
आओ तुम टूटे चश्में की तरह
कान पर लटक जाओ।
4 comments:
तुम्हारे बिना एक वीरान सी वेचैनी है,
आओ तुम टूटे चश्में की तरह
कान पर लटक जाओ
-बहुत सुन्दर रचना.
बहुत सुन्दर रचना.
आपकी यह कविता मन के बहुत करीब लगी.
दो बार पढ़ी है.. इस कविता को समझने में समय लग रहा है..
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